हिमाचल प्रदेश की वास्तुकला से आप क्या समझते है?

हिमाचल प्रदेश की वास्तुकला हिमाचल प्रदेश को प्रकृति ने तो संवारा ही है, मनुष्य ने भी वास्तुकला की विलक्षण शैलियों द्वारा मंदिरों का निर्माण कर सुंदर हिमाचल को समृद्ध संस्कृति प्रदान की है। भारत के अलग-अलग स्थानों में जन्मी वास्तुकला के मिश्रण से निर्मित मंदिर यहां के सांस्कृतिक जनजीवन में इस प्रकार घुलमिल गए हैं कि इनके शिल्प को स्थानीय कहने में कोई संकोच नहीं हो सकता। बाहरी आक्रमणों से बचे रहने के फलस्वरूप हिमाचल प्रदेश की संस्कृति, कला वह वास्तुशिल्प का मूल स्वरूप स्पष्ट नहीं हुआ है। इसी लक्ष्य की पुष्टि यहां के प्राचीन मंदिर करते हैं। अनेक आर्य और अनार्य देवताओं के पूजन के बावजूद शिव और शक्ति यहां के प्रमुख पूजनीय देव देवी है। हिमाचल प्रदेश को “देवभूमि” के नाम से भी जाना जाता है। यहां के लोग धार्मिक क्रियाकलापों में बहुत विश्वास रखते हैं। यहां के प्रत्येक गांव में एक से अधिक मंदिर होना सामान्य बात है। प्रत्येक गांव का अपना ग्रामदेवता होता है। जिसकी पूजा ग्रामीण लोग सामूहिक रूप से करते हैं। अतः हिमाचल प्रदेश को “मंदिरों की भूमि” कहा  जा सकता है। कला के रूप में मंदिर निर्माण शैली, लकड़ी पर की गई नक्काशी, मूर्तिकला, पत्थरों पर की गई चित्र कला तथा भित्ति चित्र विशेष रूप से उल्लेखनीय है। 


हिमाचल प्रदेश की वास्तुकला को हम 6 हिस्सों में विभाजित कर सकते है। हिमाचल प्रदेश में मंदिरों को बनाने के लिए भिन्न - भिन्न शैलियों का उपयोग किया गया है। हिमाचल प्रदेश को देवभूमि (देवी-देवताओं की भूमि) के नाम से जाना जाता है। वास्तुकला की दृष्टि से  हिमाचल प्रदेश के मन्दिरों को छतों के आधार पर, शिखर , समतल-छत गुंबदाकार , बन्द छत, स्तूपकार और पैगोड़ा शैली में बांटा गया है।  


    हिमाचल प्रदेश की वास्तुकला ? 

    हिमाचल प्रदेश की वास्तुकला  । Types Of Temple Architecture In Himachal Pradesh
    हिमाचल प्रदेश की वास्तुकला 

    मंदिर के निर्माण के लिए ऐसे स्थान का चयन किया जाता है जहां पहाड़ी, झरना, तालाब, गुफा आदि हो। मंदिरों के आसपास कोई ना कोई वृक्ष भी होता है। मंदिरों के अंदर तथा बाहर देवताओं की मूर्तियां होती है। स्थानीय देवता के अतिरिक्त मंदिर में ब्रह्मा, विष्णु, शिव, तथा दुर्गा की मूर्तियां भी होती है। हिमाचल प्रदेश में जो मंदिर बने हैं वह किसी ना किसी विशेष शैली के पोषक रहे हैं। यह शैलियां समय तथा राजनीतिक सत्ता के परिवर्तन के साथ बदलती रही है। यह मंदिर निर्माण शैलियां इस क्षेत्र के प्राचीन इतिहास तथा परंपराओं से संबंध रखती है। धार्मिक कृतियों तथा मंदिरों के बाहुल्य के कारण यहां के कई स्थानों को विशेष संज्ञा प्रदान की गई है। भरमौर को “शिव - भूमि” मंडी तथा निरमंड को पर्वतीय क्षेत्रों में "छोटी काशी” के नाम से जाना जाता है। 

    हिमाचल में मंदिर निर्माण की प्रमुख तीन शैलियां है। यह है शिखर शैली, पैगोडा शैली तथा पहाड़ी वास्तु शैली। पहाड़ी वास्तु शैली के अतिरिक्त बौद्ध वास्तु शैली, बंगला वास्तु शैली, मुगल तथा सिख वास्तु शैली का प्रचलन भी प्रदेश में देखा जा सकता है। 


    गुम्बदाकार शैली ?

    कांगड़ा का ब्रजेश्वरी देवी ,ज्वालाजी, चिंतपूर्णी मंदिर, बिलासपुर का नैनादेवी मंदिर, सिरमौर का बालासुंदरी मंदिर इस शैली में बनाये गए है। इस प्रकर से बने मंदिरों पर मुग़ल काल और सिक्ख शैली का प्रभाव है।

    समतल शैली ?

    समतल छत शैली में समतल छत का उपयोग किया जाता है और इसके साथ इनकी दीवारों पर काँगड़ा शैली के चित्रों को भी दर्शाया गया है। नूरपुर का ब्रज स्वामी मंदिर, सुजानपुर टिहरा का नर्बदेश्वर मंदिर, स्पीति के तांबों और बौद्ध मठ भी इसी शैली में बनाये गए है। समतल शैली में बने ज्यादातर मंदिर राम और कृष्ण के ही पाए गए है।               

    शिखर शैली ?

    हिमाचल प्रदेश में शिखर शैली के मंदिर आठवीं शताब्दी के पाए जाते हैं। यह शैली गुप्त काल और प्रतिहार काल में विशेष रूप से प्रचलित थी। इस शैली के मंदिरों का आधार चार कोनो वाला था। चबूतरे के चारों ओर सीढ़ियां होती है। मंदिर की छतें सपाट तथा शिखर आकार की होती है। मंदिर के लिए ऐसे स्थान चयनित किया जाता है जिसमें सूर्य की प्रथम किरण प्रवेश द्वार से सीधे प्रमुख देव स्थल पर पड़े। प्रवेश द्वार से अंदर प्रमुख देवता की प्रतिमा दिखाई देती है। मंदिरों की दीवारों को सुंदर ढंग से अलंकृत भी किया जाता है गर्भ गृह के आसपास सभा मंडल मनाया जाता है।

    हिमाचल प्रदेश में शिखर शैली के मंदिरों के तोरण द्वारों पर आकर्षक नक्काशी की गई है। द्वारों के चौखटों पर भी चित्रकारी उकेरी जाती है। ऊपर के प्रमुख चौखट पर विष्णु, शिव, गणपति, दुर्गा आदि के चित्र शीर्ष पर बनाए जाते हैं। प्रमुख द्वारों की दाएं तथा बाएं भुजाओं पर जानवरों, पक्षियों, मनुष्य, सांप आदि के चित्र बनाए जाते हैं। 

    शिखर शैली के मंदिर हिमाचल में जिला कांगड़ा में विष्णु मंदिर नूरपुर, शिव मंदिर मसरूर, चंबा जिले में लक्ष्मी नारायण मंदिर चंबा, शक्ति देवी मंदिर क्षत्राणी, लक्ष्णा देवी मंदिर भरमौर, कुल्लू जिले में विश्वेश्वर महादेव मंदिर बजौरा, गायत्री मंत्र जगतसुख, गौरी शंकर मंदिर जगतसुख, गौरी शंकर मंदिर नगर, मंडी जिला में अर्धनारीश्वर मंदिर मंडी, भूतनाथ, त्रिलोकनाथ, पंचवक्त्रा सिद्ध भद्रा, साहिबनि, महामृत्युंजय के मंदिर मंडी में स्थित है। लाहुल के उदयपुर में स्थित मृकुला देवी मंदिर तथा जिला शिमला में शिव शक्ति मंदिर हाटकोटी तथा सूर्य मंदिर नीरथ भी शिखर शैली में बनाई गई है। 

    स्तूपाकार शैली ?

    स्तूपाकार शैली को पिरामिड शैली भी कहा जाता है। इस शैली में बने अधिकतर मंदिर जुब्बल क्षेत्र में मिले है। जुब्बल के हाटकोटी दे हाटेश्वरी और शिव मंदिर को इस शैली में रखा जा सकता है। 


    पैगोड़ा शैली?

    पैगोडा शैली हिमाचल प्रदेश में मंदिर निर्माण की अन्य विशिष्ट शैली है। यह पहाड़ी क्षेत्रों नेपाल भूटान, सिक्किम में भी प्रसिद्ध है। इस शैली से बनाए गए मंदिर वर्गाकार अथवा आयताकार होते हैं। मंदिर की दीवारें देवदार की मोटी मोटी लकड़ी की कड़ियों से बनाई जाती है। इन कड़ियों के मध्य कार्य तथा पत्थरों की चिनाई की जाती है। इस तरह की बनाई गई दीवारें बहुत मजबूत होती है। ऐसे मंदिरों की छतों को स्लेटों अथवा लकड़ी से ढका जाता है। प्रत्येक मंजिल का फर्श मोटे-मोटे तत्वों द्वारा बनाया जाता है। इस प्रकार के मंदिर में कई छतें होती है। कई मंदिरों में सात तक मंजिलें हैं। यह छतें नीचे से ऊपर की ओर घटती जाती है। अर्थात नीचे वाली छत एक के ऊपर दूसरी, दूसरी के ऊपर तीसरी, तीसरी के ऊपर चौथी वर्गाकार होती है। कई मंदिरों में सबसे ऊपर वाली छत शंकु की तरह गोल होती है।

    पगोड़ा शैली के मंदिर में सबसे नीचे वाला कक्ष उठने बैठने के लिए प्रयोग किया जाता है। मंदिर के बीच का मुख्य भाग छतरी की तरह गोल होता है। यहां प्रधान देवता की मूर्ति स्थापित होती है। इस भाग के चारों ओर बालकनी होती है। इन मंदिरों में लकड़ी के ऊपर की गई चित्रकारी उच्च स्तर की पाई जाती है। पैगोडा शैली के मंदिर प्रदेश के 2 जिलों मंडी तथा कुल्लू में अधिक पाए जाते हैं। 


    पैगोडा शैली के मंदिर जिला मंडी में पराशर देव मंदिर, ब्रह्मा मंदिर ढीरी, कामक्ष तथा गौरी शंकर मंदिर करसोग, बौद्ध मंदिर रिवालसर, जिला कुल्लू में हिडिंबा देवी मंदिर मनाली, त्रिपुर सुंदरी मंदिर नगर, त्रियुगी नारायण मंदिर दियार, आदि ब्रह्मा मंदिर खोखण, मनु ऋषि मंदिर शैंशर में देखे जा सकते हैं। इसके अतिरिक्त जिला शिमला के भीमा काली मंदिर सराहन, शिव मंदिर बलग, मंडी जिला का मगरू महादेव मंदिर छतरी और किन्नौर जिला के शिव महेश्वर मंदिर सुंगरा में भी पकौड़ा मिश्रित पहाड़ी शैली के मंदिर है। 

    कुल्लू के हिडिम्बा देवी (मनाली), मण्डी का पराशर मंदिर, खोखण का आदि ब्रहमा मंदिर, सुगंरा का महेश्वर मंदिर इसी शैली में ही बनाये गए है।               

    बन्द-छत शैली ?

    बन्द-छत शैली हिमाचल प्रदेश की सबसे प्राचीन शैली है। भरमौर का लक्षणा देवी मंदिर और छतराड़ी के शक्ति देवी मंदिर में बन्द छत शैली का उपयोग किया गया है।  

    हिमाचल प्रदेश की वास्तुकला  भिन्न - भिन्न है। जिसमे हमने  समतल-छत, गुंबदाकार , बन्द छत, स्तूपाकार और पैगोड़ा शैली, शिखर शैली से संबंधित अध्ययन किया। अगर आप सब हिमाचल प्रदेश का इतिहास के स्त्रोत के बारे में जानना चाहते है तो आप इस लिंक पर क्लिक करें। हिमाचल प्रदेश के इतिहास के स्त्रोत का वर्णन इस प्रकार से है। 

    पहाड़ी वास्तु शैली

    हिमाचल प्रदेश में कई मंदिर पहाड़ी वास्तु शैली से निर्मित हुए हैं। इसे स्थानीय परंपरागत शैली कहा जा सकता है। यह शैली पिछड़े ग्रामीण अंचलों में अधिक प्रचलित है। मंदिर निर्माण के लिए पत्थरों का प्रयोग किया गया है। छत के लिए स्लेट तथा लकड़ी का प्रयोग किया जाता है। दीवार के अंदर और बाहर चिकनी मिट्टी का प्रयोग किया जाता है। दरवाजों, खिड़कियों तथा किवाड़ों में देवदार की लकड़ी का प्रयोग किया गया है। इस लकड़ी में नक्काशी की गई है। नक्काशी में फल - फूल, पशु - पक्षियों के चित्र बनाए गए हैं।

    इस शैली के मंदिर तीन मंजिलों से अधिक नहीं होते हैं। मंदिर के गृह विभाग में प्रधान देवता का मोहरा रखा जाता है। जिसके दर्शन के लिए दरवाजा खुला रखा जाता है। देवता के धुनें के लिए अलग स्थान बनाया जाता है देवता के आभूषणों, वस्त्रों, वाद्ययंत्रों, मोहरों को सुरक्षित रखने के लिए  विशेष स्थल बनाया जाता है। इन्हें धरातल के कमरे में रखा जाता है। लेकिन इन्हें रखने के लिए ऊपर की मंजिल से रास्ता होता है। मंदिर से कुछ दूरी पर ‘देहरा’ बना होता है। यह एक छोटा सा मंदिर होता है जहां प्रत्येक संक्रांति को देवता की पूजा होती है। देहरे में देवता का गुर आवेश में आकर लोगों को शुभकामनाएं देता है और मनोकामना पूर्ण करने का वचन देता है। देवता का गुर लोगों के बारे में भविष्यवाणी भी करता है। 

    पहाड़ी वास्तु शैली के निर्मित मंदिर मंडी जिले में मगरू महादेव मंदिर छतरी, कुल्लू में बिजली महादेव मंदिर और वशिष्ठ मंदिर तथा जिला किन्नौर में कामरु मंदिर सांगला प्रमुख है। इस प्रकार के मंदिर में गुबंद की तरह आकार प्रदान किया गया है। गुबंद नुमा शैली का प्रभाव निचले हिमाचल में अधिक देखा जा सकता है इस शैली में बने मंदिरों का ढांचा चौकोर होता है। गुबंद को सुनहरे रंग में रंगा जाता है। दीवारों तथा छतों को भित्ति चित्रों से सजाया जाता है। मंदिरों को अंदर से शीशों के विभिन्न आकार के टुकड़ों तथा संगमरमर से सजाया जाता है। इसका प्रयोग फर्श तथा दीवारों में किया गया है। यहां के मंदिर जहां प्रवेश की संपन्न वास्तुकला की ओर ध्यान आकर्षित करते हैं, वही उन में विराजित देवी देवता की आराधना कर जन-जन उनके आशीर्वाद की कामना करते हैं। हिमाचल प्रदेश में जिला बार मंदिरों का विवरण निम्न प्रकार से है। 

    मंडी  - बाबा भूतनाथ, त्रिलोकीनाथ, नैना देवी रिवालसर, शिकारी माता, कामाक्षा देवी।

    कुल्लू - हिडिम्बा देवी मनाली, परशुराम मंदिर निरमंड।

    बिलासपुर - नैना देवी, बाबा बालक नाथ, लक्ष्मी नारायण।  

    हमीरपुर - बाबा बालक नाथ दियोट सिद्ध, शनि देव मंदिर, संतोषी माता मंदिर, राधा कृष्ण मंदिर। 

    ऊना - बाबा डेरा रुद्रु, जोगी पंगा, चिंतपूर्णी माता मंदिर, बाबा भड़बाग सिंह। 

    चम्बा - लक्ष्मी नारायण मंदिर समूह, नर्सिंग मंदिर। 


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    हिमाचल प्रदेश की वास्तुकला  पेज को पवन पूनल के द्वारा लिखा गया है, इनकी Facebook Id यह है। 
















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